Saturday, July 30, 2011

रफ़ी साहेब


गायक मो रफ़ी के लिए यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि वह हिन्दी सिने संगीत के सर्वश्रेष्ठ फ़नकारों मे एक थे ।रफ़ी साहेब की गायकी मे विविधता का सर्वोत्तम स्वरूप रहा, जब कोई भी अभिनेता अपने होठ हिलाता था तो मानो मो रफ़ी की आवाज़ उसी की प्रतीत होती। रफ़ी साहेब की कला हर अभिनेता
के स्टाइल के हिसाब से हुआ करती ,विविधता की बानगी कुछ इस तरह रही कि दिलीप कुमार, देव आनंद, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, सुनील दत्त,धर्मेन्द्र, राज कुमार, शशी कपूर ,अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना और अन्य अभिनेताओं के स्टाइल मे सहजता से फ़िट बैठ गए । इसी कारण रफ़ी साहेब आज भी श्रोताओं मे बेहद पसंद किए जाते हैं ।श्रोताओं को आज भी मंत्रमुग्ध करने मे सक्षम उनकी गायकी : नफ़रत की दुनिया को छोड के , आया रे खेल खिलौने लेकर आया रे,मधुबन मे राधिका नाचे, जब भी यह दिल उदास होता है, ओ दुनिया के रखवाले जैसे गीतो मे आज भी जीवित है । मो रफ़ी को भारतीय सिने संगीत परम्परा का ध्रुव तारा होने का गौरव प्राप्त है ।


मो रफ़ी का जन्म अमृतसर के निकट कोटला सुल्तान गांव मे हुआ, जीवन के आरंभिक वर्ष और तालीम का आगाज़ यही से होता है । थोडे बडे हुए तो संगीत शिक्षा के लिए अमृतसर से लाहौर आए,उस समय उनकी उम्र तकरीबन 14 वर्ष थी। बचपन के दिनों में संगीत जुनून पर चर्चा करते हुए रफ़ी साहेब ने फ़कीर और एकतारा की बात कही थी। उन दिनों वह एकतारा लेकर चलने वाले फ़कीर के फ़न से बहुत प्रभावित रहे, फ़कीर अक्सर एकतारा पर कुछ गाते हुए दूर-दूर तक चले जाते हैं। जिन श्रोताओं ने किसी फ़कीर को गाते सुना होगा,वह जानते हैं कि रफ़ी साहेब की दीवानगी यूं ही नही थी । फ़कीर के जुनून को सलाम करते हुए बालक रफ़ी उससे सीख लेकर रियाज़ और गायकी करते थे। यह प्रयास आने वाले स्वर्णिम भविष्य संकेत के रूप मे देखा जा सकता है । जब लाहौर पहुंचे तो वहां उस्ताद अब्दुल वहीद खान, जीवन लाल मट्टु एवं गुलाम अली खान का आशीर्वाद प्राप्त हुआ, युवा रफ़ी को संगीत की संस्थागत शिक्षा-दीक्षा से मिली ।


रफ़ी साहेब ने सबसे पहले रेडियो लाहौर मे संगीत सेवाएं दी, दरअसल सगीतकार फ़िरोज़ निज़ामी इस फ़नकार नगीना को परखकर यहां लाए थे। इस तरह एक स्वर्णिम कैरियर का आगाज़ हुआ, पहला फ़िल्मी गाना श्याम सुंदर के संगीत से सजी पंजाबी फ़िल्म मे रिकार्ड हुआ। सन 1944 मे लाहौर से सफ़र के ध्येय लक्ष्य बम्बई(मुंबई) चले, रिश्तेदारों व दोस्तों की मदद से भिंडी बाज़ार इलाके मे रहने का ठिकाना
मिल गया। थोडा वक्त गुज़रने के बाद उनकी भेंट अब्दुल रशीद करदार, महबूब खान, नौशाद अली, फ़िरोज़ निज़ामी से हुई । अब वह यहां रहते हुए फ़िल्मों मे पार्श्व गायन कर सकते थे। नौशाद साहेब रफ़ी की क्षमता से इस कदर प्रभावित हुए कि हिन्दी फ़िल्म संगीत दुनिया मे ब्रेक दिया, अनमोल घडी एवं शाहजहां मे गीत दिए |फ़िर तो जैसे नौशाद रफ़ी के आवाज़ के मुरीद रहे । नौशाद ने रफ़ी को शुरुवाती अवसर अवश्य दिए लेकिन संगीतकार फ़िरोज़ निज़ामी की फ़िल्म ‘जुगनु’ से उन्हे दमदार आगाज़ मिला। एकल गायन का सफ़र : नौशाद के धुनो से सजी ‘चांदनी रात’, ‘दिल्लगी’, ‘दुलारी’ फ़िर श्याम सुंदर के संगीत मे ‘बाज़ार’ तथा हुश्नलाल भगतराम के लिए ‘मीना बाज़ार’ से शुरू हुआ।



कहा जाता है कि शुरू मे रफ़ी साहेब की गायकी जी एम दुर्रानी से प्रभावित रही। इस का अनुभव ‘एक दिल के टुकडे हज़ार हुए’ (प्यार की जीत) व ‘सुहानी रात ढल चुकी’(दुलारी) मे किया जा सकता है । मो रफ़ी को समकालीन सभी शीर्ष संगीतकारों के साथ काम करने का सौभाग्य मिला । साठ व सत्तर दशक की पीढी का सौभाग्य रहा कि वह रफ़ी साहेब के ज़माने मे पैदा हुए। वह लोग रहे जिन्होंने रफी को लाइव भी सुना |फ़िर जो नयी फ़सल आई उसमे किशोर कुमार की दीवानगी रही। सत्तर के दशक मे संगीत की महफ़िल मे किशोर दा की जबरदस्त मौजूदगी के बावजूद मो रफ़ी ने बेहतर गीत दिए : दिन ढल जाए (गाईड), क्या हुआ तेरा वादा (हम किसी से कम नही), बडी दूर से आए है (समझौता), राही मनवा दुख की चिंता ( दोस्ती) , हुई शाम उनका ख्याल आ गया( लाल पत्थर), गर तुम भुला न दोगे(यकीन) जैसे गीत श्रोताओं को आज भी मंत्रमुग्ध कर देते हैं। सत्तर दशक मे रफ़ी साहेब ने नासिर की फ़िल्म से जबरदस्त वापसी करते हुए गायन के लिए पुरस्कार जीता।

इसी वर्ष मनमोहन देसाई की सुपरहिट ‘अमर अकबर अंथोनी’ के गीतों से मो रफ़ी एकबार फ़िर शीर्ष पर पहुंचे । रफ़ी साहेब ने कैरियर की दूसरी पारी दमदार तरीके से शुरू की,फ़िल्मफ़ेयर व राष्ट्रीय पुरस्कार से वह फ़िर से चर्चा मे आ गए थे।लोकप्रिय पत्रिका ‘फ़िल्म वर्ल्ड’ ने भी ‘तेरी गलियों मे’ के लिए उन्हे सम्मानित किया। यह सफ़र 31 जुलाई,1980 को हृदयघात से समाप्त हुआ, तो मानो ऐसा लगा कि संगीत की महफ़िलअधूरी हो गई।

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