Sunday, January 29, 2012

57वें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार




रणबीर कपूर और विद्या बालन ने 57वें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ अभिनय का पुरस्कार जीता है.रणबीर कपूर को रॉकस्टार के लिए जबकि विद्या बालन को द डर्टी पिक्चर के लिए ये सम्मान दिया गया. सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म ज़िंदग़ी न मिलेगी दोबारा घोषित हुई और इसी फ़िल्म की निर्देशक ज़ोया अख़्तर को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक घोषित किया गया.

सबसे ज़्यादा सात पुरस्कार ज़िंदग़ी न मिलेगी दोबारा फ़िल्म को मिले.

दूसरे स्थान पर रॉकस्टार पाँच पुरस्कारों के साथ रही.

रणबीर को रेखा और यश चोपड़ा ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का सम्मान दिया. वहीं विद्या बालन को द डर्टी पिक्चर के लिए ये सम्मान श्रीदेवी और बोनी कपूर के हाथों मिला.

विद्या को इससे पहले 2009 की पा फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर मिला था जबकि इश्क़िया के लिए उन्हें क्रिटिक्स का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफे़यर दिया गया था.

अन्य पुरस्कार
विद्या बालन इससे पहले पा फ़िल्म के लिए भी सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का सम्मान पा चुकी हैं
इस बार सर्वश्रेष्ठ डायलॉग का सम्मान फ़रहान अख़्तर को ज़िंदग़ी न मिलेगी दोबारा के लिए मिला जबकि सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए डेल्ही बेली को चुना गया. ये सम्मान अक्षत वर्मा ने जीता.

सबसे अच्छी कहानी के लिए फ़िल्म 'आई एम कलाम' के संजय चौहान को सम्मानित किया गया.

क्रिटिक्स का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ख़िताब भी रणबीर कपूर को ही मिला जबकि अभिनेत्री का सम्मान प्रियंका चोपड़ा ने फ़िल्म सात ख़ून माफ़ के लिए जीता.

सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता फ़रहान अख़्तर फ़िल्म ज़िंदग़ी न मिलेगी दोबारा के लिए बने जबकि सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री रानी मुखर्जी नो वन किल्ड जेसिका के लिए बनीं.

अरुणा ईरानी को लाइफ़टाइम अचीवमेंट सम्मान दिया गया.

फ़िल्म रॉकस्टार के लिए एआर रहमान को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार चुना गया.

रॉकस्टार के ही गाने नादान परिंदे के लिए इरशाद कामिल सबसे बेहतरीन गीतकार चुने गए.इसी फ़िल्म के गाने जो भी मैं के लिए मोहित चौहान को सबसे अच्छे पुरुष गायक का सम्मान मिला. महिलाओं के वर्ग में ये सम्मान रेखा भारद्वाज और उषा उत्थुप को सात ख़ून माफ़ के लिए दिया गया.




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Friday, January 27, 2012

डीप फ़ोकस’ सत्यजित रे को समर्पित



डीप फ़ोकस मूलत: फ़िल्मकार सत्यजित रे द्वारा सिनेमा के ऊपर लिखे आलेखों का संग्रह है, सिनेमा क्षेत्र में महान उपल्ब्धियां अर्जित करने वाले चार्ली चापलीन, माईकल अंजेलो,गोदार एवं बांग्ला सिनेमा के हस्ताक्षर उत्तम कुमार पर आलेख हैं । विशेष आकर्षण सत्यजित रे द्वारा तत्कालीन फ़िल्म सामारोहों पर लिखे लेख हैं। पिता के स्मरण में संदीप रे ने फ़िल्मकार के कुछ लेखों को ‘डीप फ़ोकस’ रुप में प्रकाशित कर रहे हैं, पुस्तक का विमोचन आज 28 जनवरी को कोलकाता में जाने माने फ़िल्मकार श्याम बेनेगल द्वारा किया जाएगा । श्याम बेनेगल ने पुस्तक की ‘प्रस्तावना’ भी लिखी है । कार्यक्रम में सत्यजित रे पर बनी डोक्युमेंट्री ‘सत्यजित रे फ़िल्ममेकर’ भी प्रदर्शित की जाएगी ।

पुस्तक के संपादक संदीप रे के मुताबिक पुस्तक की पहली श्रृंखला ‘ हमारी फ़िल्में, उनकी फ़िल्में’ को सत्यजित रे ने स्वयं संपादित किया था। उसके बाद पुस्तक में कई आलेख जोडे गए फ़िर ‘डीप फ़ोकस’ को निकालने का मन बनाया गया । पुस्तक निकालने के पूर्व पाठकों से सहयोग मांगा गया, सत्यजित प्रेमियों ने फ़िल्मकार द्वारा लिखे भुले-बिसरे लेख संदीप रे के पास भेजें । नवीन पुस्तक के अधिकांश आलेखों को सुधी पाठकों के सहयोग से एकत्रित किया गया। पुस्तक में फ़िल्मकार द्वारा लिखी कहानी ‘ रोयल बंगाल रहस्य’ को शामिल किया गया है,साथ में संदीप रे द्वारा कहानी पर लिखी पटकथा भी है.

:पुस्तक का विमोचन 28 जनवरी को कोलकाता में जाने माने फ़िल्मकार श्याम बेनेगल द्वारा किया जाएगा

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Saturday, January 21, 2012

कश्मीर की दास्तान




फ़िल्मकार मुसा सईद की फ़िल्म ‘ Valley of saints’ कश्मीर पृष्टभूमि की एक प्रेम कहानी है।कश्मीर की आबे-हयात समझी जाने वाली ‘डल झील’ के नैसर्गिक वातावरण को हिंसक गतिविधियों ने दुषित सा कर दिया है ।डल के सहारे बसे बहुत से नाविक परिवार इस सबसे बेहद त्रस्त से रहते हैं, डल की इस तरह की अशांत गतिविधियों से एक तरह से शिकारे वालों का जीवन आधार ही छीन गया है ।युवा नाविक गुलज़ार भी(मुख्य पात्र) स्वर्ग को नरक में तब्दील होते देख बेहद दुखी है।

बेहतर ज़िंदगी की चाह में वह ‘कश्मीर’ को छोड कर कहीं और जाने का मन बनाता है । लेकिन यहां पर भी तकदीर साथ नहीं, शहर में हफ़्ते दस रोज़ से ‘कर्फ़्यु’ लगा हुआ है । अब उसे स्थिति सामान्य होने तक इंतज़ार करना होगा, वक्त गुज़ारने के लिए वह युवती असीफ़ा के काम में हांथ बंटाता है ।पेशे से वैज्ञानिक असीफ़ा पर्यावरण का अध्य्यन कर रहीं हैं, इस काम में मदद के लिए वह गुलज़ार को साथ लेती हैं । काम की वजह से दोनों में एक संवेदना डोर बंध जाती है । इधर असीफ़ा के अध्य्यन से कुछ उदासीन व चिंताजनक नतीज़े सामने आते हैं, यह बता रहे हैं कि किस तरह ‘डल झील’ और उसके आस-पास की ‘इकोलोजी’ प्रदुषित हो चुकी है । गुलज़ार सत्य को जानकर स्तब्ध सा है…

अब कैसे जिंदगी गुज़ारेंगे शिकारे वाले?
सदा से स्वर्ग समझी जाने वाली ‘कश्मीर’ क्या आज भी जन्नत है ?
इसके बाद गुलज़ार एवं कश्मीरियों की ज़िंदगी किस रूख जाएगी?… यही कहानी है ।

नोट: फ़िल्मकार मुसा सईद की फ़िल्म ‘ valley of saints’ कश्मीर पृष्टभूमि की एक प्रेम कहानी को बयान करने वाली फ़िल्म है । इसे सन 2012 के sundance फ़िल्म फ़ेस्टीवल में एक महत्त्वपूर्ण पुरस्कार के लिए नामित किया गया है ।




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Tuesday, January 17, 2012

सईद मिर्ज़ा की 'नसीम'




सईद मिर्ज़ा की नसीम ‘बाबरी मस्जिद विधवंश’ के पूर्व देश के सामाजिक माहौल एवं घटना बाद की स्थिति पर एक मार्मिक टिप्पणी है। । फ़िल्म में एक मुस्लिम परिवार की मुश्किलों को व्यक्त किया गया है ,मुख्य कथा 15 वर्षीय बालिका ‘नसीम’ (मयूरी कांगो), और उसके प्रिय दादाजी (कैफ़ी आज़मी) को फ़ोकस करती है। दादाजी के भूमिका में शायर कैफ़ी आज़मी ने शानदार अभिनय कला दिखाई है, गौरतलब कि ‘नसीम’ का किरदार कैफ़ी साहब का एकमात्र ‘स्क्रीन’ अवतार है। संवेदनशील विषय पर आधारित होते हुए भी फ़िल्म में कहीं ‘हिंसा’ को प्रोजक्ट नही किया गया, अपितु ‘नसीम’ के माध्यम से एक मुस्लिम युवती एवं उसके परिवार के अहिंसक असंतोष व क्रोध को प्रकट किया गया है ।

फ़िल्म अधिकांशत: फ़्लैशबैक के साथ परिवार की पुरानी यादों को प्रस्तुत करती है, दादाजी अकसर पत्नी को याद करते हुए आगरा का जिक्र करते हैं । पहले परिवार को भूल कर दूसरा निकाह या शादी करने की रश्म देखी गयी है,वह दादा से पूछती है कि उन्होंने ऐसा क्यूं नहीं किया? दादा कहते हैं ‘ मेरे साथ ऐसा नहीं था, क्यूंकि इस मामले में डर यह था कि मैं नही बल्कि तेरी दादी मुझे छोड चली जाएगी’ दादा के जवाब पर नसीम हंस पडती है । उनकी इस स्वीकारता व आत्मसमर्पण को अनुभव कर दर्शक भी उनकी शख्सियत के कायल से हो जाते हैं ।

पर मुश्किल दिन खुशी के दुश्मन से हैं,टेलीविज़न प्रसारण को देखकर नसीम के पिता झल्ला कर बोलते है ‘ जब हम यहां जीना चाहते हैं तो,हमको बाहर क्यूं भेजना चाहते हो ? इदुल फ़ितर में परिवार बुजुर्ग दादा जी के पास जाता है, वह फ़ैज़ की पंक्तियों को याद कर सुना रहे हैं, इस बीच कुछ लाइनें भूलने लगे तो नसीम का साथी ज़फ़र( के के मेनन) उसे क्रोधित स्वर में पूरा करता है । जफ़र कहता है कि फ़ैज़ की पंक्तियों के मायने आज बदल गए हैं, हिंसा के माहौल में लोग एक दूसरे को काट रहे हैं । ज़फ़र का व्यक्तित्व तत्कालीन मुस्लिम समाज का प्रतिनिधि सा है,वह पीडित मुस्लिम युवा की आवाज़ है । पर इस महौल में हर कोई ज़फ़र जैसा नहीं, दादा उस समय व्यवस्था पर विश्वास व्यक्त करते हैं ।अब जब बाहर की आबो-हवा घर में पूरी चली आती है तो, नसीम के पिता दादा से पूछ्ते हैं कि ‘क्यूं विभाजन के बाद यहां रहने का निर्णय लिया’ कैफ़ी साहेब हल्की आवाज़ में कहते हैं‘तुम्हें आगरा के घर लगाया हुआ वह पेड याद है! उसे मैंने और तुम्हारी मां ने बडी शिद्दत से बडा किया है ।पिता की बातों को सुनकर वह क्रोध में बाहर चले जाता है, फ़िर नसीम मासूमियत से पूछती है ‘क्या सचमुच केवल पेड ही वजह है ?

वह इसे स्वीकार करते हैं! हम देखते हैं कि कुछ दिनों बाद दादा जी का इंतकाल हो जाता है, संयोग से वह बाबरी मस्जिद घटना के दिन अल्लाह को प्यारे हो जाते हैं, मुश्किल भरी आबो-हवा में क्षति हुई |
सरफ़िरा ज़फ़र उनके जनाज़े को देख ठंडी आवाज़ में बडबडाता है ‘ यह दिन आपके रुकसत होने के लिए माकूल है’।



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Saturday, January 14, 2012

जो भी बिछडे हैं, कब मिले हैं फ़राज़



आधुनिक उर्दू शायरी की लोकप्रिय शख्सियत ‘अहमद फ़राज़’ किसी तारूफ़ के मोहताज़ नही, शायरी को अभिवयक्ति का सरमाया मानने वाले फ़राज़ में कारगर कलामों की अदभुत क्षमता थी । सामाजिक,राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संदर्भों को उन्होंने शायरी व गज़ल विधा के कलात्मक हथियारों से व्यक्त किया। फ़राज़ साहेब की गज़लों में असफ़ल प्रेम एवं मिलन के स्वर कमाल की अंदाज़-ए-बयान को प्रस्तुत करते हैं । उर्दू गज़ल सौंदर्य के दीवाने उन्हें विषय चयन एवं विवधता के लिए याद करते हैं, गज़ल गायकी के सितारे फ़राज़ के कलामों के बगैर अधुरे से मालूम होते हैं । मेंहदी हसन,तलत अज़ीज़,रूणा लैला जैसे फ़नकार फ़राज़ को बहुत याद करते हैं ।

फ़राज़ की युवावस्था फ़ैज़ एवं हबीब जलीब जैसे उर्दू के महान व नुमाया शख्शियतों के साए में जवां हुई, इसलिए यह कहा भी जाता है कि फ़राज़ का तसव्वुर फ़ैज़ व जलीब साहेब की विरासत से संवाद है । पाकिस्तान के ‘प्रगतिशील आंदोलन’ में इन विभूतियों का स्मरणीय योगदान रहा है, अब वह फ़ैज़ साहेब हो या अहमद फ़राज़ या फ़िर हबीब जलीब सभी ने तत्कालीन तानाशाही की खुलकर निंदा की।

निसार मैं तेरी गलियों पे अए वतन
के जहां चली है रश्म,कि कोई न सर उठा के चले ।

अब तो शायर पे भी कर्ज़ मिट्टी का है
अब कलम में लहू है, सियाही नहीं ।

यही कहा था मेरी आंख देख सकती है
तो मुझ पे टूट पडा सारा शहर नाबीना ।

दीप जिसका महल में ही जले
चंद लोगों की खुशियां लेकर चले ।

अहमद फ़राज़ के चले जाने से, पाकिस्तान प्रगतिशील आंदोलन को ठीक वैसी ही क्षति हुई जैसे कैफ़ी आज़मी के यूं रुकसत हो जाने से भारत के प्रगतिशील आंदोलन को हुई । माना जाता है कि फ़राज़ के साथ प्रगतिशील शायरी का फ़न ना के बराबर रहा, नई पीढी की उर्दू शायरी में ‘प्रगतिशीलता’ का सौंदर्य तो ज़रूर था मगर अब कैफ़ी आज़मी और फ़राज़ जैसा शायद कोई न था । फ़राज़ के चले जाने से आधुनिक उर्दू आंदोलन की वह कलम खामोश हो गई, जिसे नए पाकिस्तान का भविष्य लिखना था ।

कैफ़ी आज़मी(हिन्दुस्तान) और अहमद फ़राज़(पाकिस्तान) दोनों में ‘प्रगतिशील उर्दू शायरी आंदोलन’ की सामानता थी । फ़राज़ की शायरी किसी भी जमीनी और भौगोलिक सरहद की कब्ज़े में नहीं रही, हिन्द व पाक में वह समान रुप से लोकप्रिय हैं । कला किसी भी सरहद में कैद नहीं की जा सकती, यही वजह है कि फ़राज़ हिन्दुस्तान में पढे जाते हैं तो कैफ़ी पाकिस्तान में । फ़राज़ के कलाम में ‘सामाजिक न्याय’ का प्रगतिशील स्वर बडी ही शिद्दत से व्यक्त हुआ ,प्रगतिशील उर्दू आंदोलन की वह संभवत: अंतिम कडी थे । अहमद फ़राज़ के चले जाने से, पाकिस्तान प्रगतिशील उर्दु आंदोलन को ठीक वैसी ही क्षति हुई जैसे कैफ़ी आज़मी के यूं रुकसत हो जाने से भारत के प्रगतिशील आंदोलन को हुई थी।

‘प्रगतिशील उर्दू शायरी’ की संकल्पना जोश मलीहाबादी तथा मोहम्मद इकबाल से आरंभ होकर अली सरदार जाफ़री, साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी के प्रयासों से विकसित हुई । फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ व कैफ़ी आज़मी की संवेदना ने विरासत को आगे बढाया, फ़िर हबीब जलीब, फ़हमीदा रियाज़,किश्वर नाहिद और अहमद फ़राज़ ने ‘प्रगितिशील’ उर्दू आंदोलन के माध्यम से उर्दू समाज को ‘परिवर्तन’ के लिए आंदोलित किया । प्रगतिशील अवधारणा से बीसवीं शदी के उर्दू साहित्य को बडा संबल मिला । आंदोलन को ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ से स्फ़ूर्ति मिली, कला विधाओं के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों को खत्म करने का संकल्प लिया।

रुमानी शायर के रूप में फ़राज़ साहेब ने ‘कलाम’ को फ़ारसी व उर्दू विरासत से तराशा । फ़राज़ की रूमानी शायरी में मीर की संवेदना और मिर्जा गालिब का दर्शन सुंदरता से समाहित है । यह कम लोग जानते हैं कि फ़राज़ फ़ारसी के महान शायर ‘बेदिल’ से बेहद प्रभावित रहे, वह कहते हैं ‘शायरी की कल्पना मुझे बेदिल और गालिब से मिली’।

एक ओर जहां फ़राज़ प्रगतिशील शायरी पुरोधा रूप में विख्यात हैं, वहीं सरहद पार भारत में ‘रंजीश ही सही’ से एक लोकप्रिय नाम बने हुए हैं । चार दशक बाद भी यह पंक्तियां ना जाने क्यूं अनजान नहीं मालूम होती हैं ।

रंजिश ही सही दिल दुखाने के लिए आ
अब फ़िर से मुझे छोड के जाने के लिए आ ।

--क़लाम---

1) फ़िर उसी रहगुज़र पे शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद

जान पहचान से क्या होगा
फ़िर भी अए दोस्त गौर कर शायद

मुंतज़ीर जिनके हम रहे उनको
मिल जाए और हमसफ़र शायद

जो भी बिछडे हैं कब मिले हैं फ़राज़
फ़िर भी तु इंतज़ार कर शायद !

2) कठिन है रहगुज़र, थोडी दूर साथ चलो
बहुत कडा है सफ़र थोडी दूर साथ चलो

तमाम उम्र कहां कोई साथ देता है
यह जानता हूं, मगर थोडी दूर साथ चलो

यह एक शब की मुलाक़ात भी गनीमत है
किसे है कल की खबर, थोडी दूर साथ चलो

अभी तो जाग रहें हैं चिराग राहों के
अभी है दूर सेहर थोडी दूर चलो ।

3) सिवाए तेरे कोई भी दिन रात ना जाने मेरे
तु कहां है मगर अए दोस्त पुराने मेरे

शमा की लौ थी कि वह तु था शब-ए-हिज़्र
देर तक रोता रहा कोई सिरहाने मेरे

आज एक बरस और बीत गया उसके बगैर
जिसके होते हुए होता था ज़माने मेरे

काश तु भी मेरी आवाज़ सुनता हो
फ़िर पुकारा है तुझे दिल की सदा ने मेरे

काश तु भी आ जाए ‘मसीहाई’ को
लोग आते हैं बहुत दिल को दुखाने मेरे ।


4) हुई है शाम तो आंखो में बस गया फ़िर तु
कहां गया है मेरे सेहर के मुसाफ़िर तु

बिछडना है तो हंसी खुशी से बिछड जा
यह क्या सोंचता है हर मुक़ाम पे आखिर तु

फ़राज़ तुने उस मुश्किलों में डाल दिया
ज़माना साहिब और सिर्फ़ शायर तु ।

5) रंजिश ही सही दिल दुखाने के लिए आ
आ फ़िर से मुझे छोड के जाने के लिए आ

जैसे तुझे आते हैं ना आने के बहाने
वैसे ही किसी रोज़ ना जाने के लिए आ

इक उम्र से हूं लज़्ज़त-ए-गम से भी महरूम
अए राहत-ए-जान मुझको रूलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-खुशफ़हम को तुझसे हैं उम्मीदें
यह आखिरी शम्मे भी बुझाने के लिए आ


6) ख्वाव मरते नहीं
ख्वाब दिल हैं, ना आंखे, ना सांसे
के जो रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जाएंगे
जिस्म की मौत से यह भी मर जाएंगे

ख्वाब मरते नहीं !
ख्वाब तो रोशनी हैं , नवा हैं, हवा हैं
जो काले पहाडों से रूकते नहीं !

जुल्म की दोजखों से भी…
फ़ुकते नहीं रोशनी और हवा के आलम

ख्वाब तो हर्फ़ हैं, ख्वाब नूर हैं
ख्वाब सुकरात हैं, ख्वाब मंसूर है ।


15-01-2012





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Saturday, January 7, 2012

बेहतरीन संगीत निराश नही करता !




हिन्दी फ़िल्मों में गीतकारों की सेवाएं लेने का प्रचलन पहली सवाक फ़िल्म‘आलम-आरा’ से अस्तित्त्व में आया, और आज यह ‘परम्परा’ सी बन गयी है .आर्देशिर ईरानी ने अपने साहसिक उद्यम से भारतीय सिनेमा में ‘संगीतकारों’एवं गीतकारों को अवसर दिए . गीत-संगीत की यह परम्परा उस समय
से आज तक बरकरार है एवं हर सार्थक गीत और अल्बम से मज़बूत हो रही है .फ़िल्म पटकथा में परिस्थितियों के प्रति पात्रों की ‘कविताई अभिव्यक्ति’को गीतों के माध्यम से विस्तार मिला . ‘सिनेमा’ मेंगीत-संगीत ‘गीतकार’ जैसे रचनाधर्मी व्यक्तित्व की सेवाओं का सुपरिणाम है .उर्दू से आए फ़नकारों का फ़िल्म लेखन की ओर रुझान रहा , एक समय में यह चलन सा हो गया कि उर्दू से संबंध रखने वाले ही इस क्षेत्र में कामयाब होते थे . इस भाषा ने फ़िल्मों को अनेक उल्लेखनीय गीतकार दिए,
हिन्दी के गीतकार भी बेहद सफ़ल रहे--- कवि प्रदीप, भरत व्यास, नीरज ,योगेश, पंडित नरेन्द्र शर्मा के उदाहरण इसकी
ज़िन्दा मिसाल हैं .


गीतकार का सृजन –धर्म : - कहानी,पात्र,परिस्थिति का निरीक्षण व सूक्ष्म निरीक्षण से प्रेरित होकर अभिव्यक्त होता है . कोई गीतकार किसी बात को कितनी ‘दक्षता’ से व्यक्त करेगा, यह पूर्णतया: उसकी व्यक्तिगत क्षमता पर निर्भर करता है . सुंदर अभिव्यक्तियों से पूर्ण गीत किसी मामूली से फ़िल्म को यादगार बना देता है . हिन्दी ‘मुख्यधारा’सिनेमा में दर्जनो ऐसे उदाहरण हैं जहां गीत-संगीत तो ‘सुपरहिट’ रहा किन्तु फ़िल्मों ने निराश किया, यहउदाहरण संगीत को प्रतिष्ठा प्रदान कर यह स्थापित करते हैं कि बेहतरीन संगीत कभी निराश नही करता . कोई नया गीत सुनकर श्रोता फ़िल्म के बारे में जानने को उन्मुख होते हैं, फ़िल्म प्रचारक भी इस बात को जानते हैं कि गीत श्रोताओं -दर्शकों को आकर्षित करते हैं . फ़िल्म प्रमोशन में गीतों को महत्त्व मिलने का एक कारण यह भी रहा, रेडियो- टीवी में गीतों के साथ फ़िल्म की मार्केटिंग की जाती है .

आधुनिक युग में बाज़ार के नाम पर फ़िल्म वालों ने प्रमोशन में गीत की ‘प्रस्तुति’ को ‘गुणवत्ता’ से अधिक महत्त्व दे दिया, प्रस्तुति केंद्रित गीतों में फ़ूहडता आम हो जाना ठीक न हुआ . ऐसे हालात में फ़िल्म-वालों को कल्याण की राह गुणवत्ता की शरण में मिली, गीतकारों ने कलम के जादू से संगीत का बेडा पार किया। फ़िल्म –संगीत में लोगों की रुचि फ़िर से जगाई --गुलज़ार, जावेद अख्तर जैसे लेखकों ने बाज़ार युग को चुनौती देकर श्रेष्ठ गीतों की रचना की, अपनी दूसरी पारियां शुरु कर वह आज भी मोर्चे पर कायम हैं . वह गुज़रा स्वर्णिम दौर जैसे फ़िर से महत्त्वपूर्ण हो गया . एक ऐसा समय जब शैलेन्द्र, शाहिर, मजरुह, हसरत, शकील बदायूंनी ,रज़ा मेंहदी अली खान,राजेन्द्र कृष्ण, कैफ़ी आज़मी, नीरज, भरत व्यास, आनंद बक्शी,गुलज़ार, योगेश के गीतों ने जन्म लिया .गुज़रे जमाने से सीख लेकर आज के गीतों को भी अपने ‘समय’ का सार्थक रूप प्रस्तुत करना होगा ।


आज पुराने गीतों का जादू कल ही की तरह बरकरार है, आज भी हमें ऐसे श्रोता मिल जाएंगे जिन्हे नए गाने से ज़्यादा वही गीत पसंद है .आजकल के गाने ज़बान पर चढ ज़रूर जाते हैं , लेकिन दिल पर गुज़रा ज़माना ही राज करता है . क्या ऐसे गाने नही बन रहे जो दिल तक पहुंचे ? अगर ऐसा है तो फ़िल्म संगीत को ‘पुनरुत्थान’ की बेहद ज़रुरत है !


तकनीकी सुविधाओं के स्तर पर बात करें तो सन 80 के आस-पास बहुत से लोगो के पास टेप या कैसेट रिकार्डर जैसे आधुनिक उपकरण नही थे, तब रेडियो पर ही फ़िल्म संगीत का आनंद लिया जाता था . रेडियो के पहले स्थिति इस जैसी भी नही थी, सन 50-60 के आस पास रेडियो होना भी एक बडी बात समझी जाती थी। यदि हम इस लम्बे अंतराल का जायज़ा लें , तो पाएंगे कि हिन्दी संगीत का ‘स्वर्णिम’ युग रेडियो पर लोकप्रिय हुआ. जिस संगीत को लोगो ने रेडियो पर सुनकर याद कर लिया हो वह कितना प्रभावी रहा होगा यह स्पष्ट है . यह गीत आज भी उतने ही लोकप्रिय और बीते समय की पहचान हैं .फ़िल्म निर्माता को समय की नब्ज़ पहचान कर संगीत के प्रति ‘कामचलाऊ’ नज़रिया को हटा कर बेहतर संगीत को लाना होगा . गीतकार के व्यक्तित्व को ‘रचना’ की आज़ादी देकर गीतो में फ़िर से जान डाली जा सकती है . जब उसके नज़रिए को ‘स्पेस’ मिलेगा तो गाने दिल तक ज़रूर पहुंचेंगे, यादगार गीतों का स्वर्णिम दौर फ़िर से रचा जाएगा . गुलज़ार ,जावेद अख्तर, प्रसून जोशी,अमिताभ
भट्टाचार्य,स्वानंद किरकिरे , निरंजन आएंगर जैसे गीतकारों ने उत्थान की दिशा में सकारात्मक कार्य कर कुछ बेहतरीन गीतों की रचना की .


संगीत में गुज़रे ज़माने के फ़नकारों ने कुछ ऐसा कमाल किया कि वह सदा के लिए अमर बन गए . संगीत के सफ़र में अनेक शख्शियतें आईं, पर हर किसी को याद नही किया जाता .कुछ फ़नकार ऐसे आए जिन्हे सिरे से भूला दिया गया, इन लोगों ने काम तो अच्छा किया पर श्रोता इन्हे नाम से नही पहचानते . इन फ़नकारों में ऐसे बहुत से ‘गीतकारों’ का नाम लिया जा सकता है जिनके गाने आज भी सुने जाते हैं , पर ‘स्वयं इन्हें भूला सा दिया गया और विमर्श का विषय नही बन सके .यह शख्शियतें विमर्श का विषय नही हैं .



गीतकार कमर जलालाबादी ने अपने सिने कैरियर में सुंदर गीतों की रचना की--‘दोनो ने किया था प्यार मगर’(महुआ) ‘हावडा ब्रिज’ का ‘आईए मेहरबान’(हावडा ब्रिज), मैं तो एक ख्वाब हूं (हिमालय की गोद मे) जैसे हिट गीत लिखे. भाषा से फ़िल्म में आए भरत व्यास के गीतों में हिन्दी कविताई का प्रयोग देखा गया ‘यह कौन चित्रकार है’( बूंद जो मोती बन गई), ‘ज्योत से ज्योत जगाते चलो’(संत ज्ञानेश्वर), ‘आ लौट के आजा मेरे मीत’(रानी रुपमती) जैसे लोकप्रिय गीतो के रचनाकार भरत व्यास पर कम लिखा गया है .शायर-गीतकार हसन कमाल को ‘निकाह’ के गीतों के लिए याद किया जाता है , पर उनके ‘ऐतबार’ और ‘आज की आवाज़’ के लिखे गीत भी कमतर नही हैं .हसन
कमाल को फ़िल्म ‘आज की आवाज़’ के लिए फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड भी मिला . इसी तरह
गुज़रे ज़माने के एस एच बिहारी (शमसुल हुदा बिहारी) का नाम विमर्श से दूर है, संगीतकार ओ पी नैयर- एस एच बिहारी-आशा भोसले की टीम ने यादगार गीत दिए. शमसुल हुदा के गीत:—कजरा मोहब्बत वाला (किस्मत), ज़रा हौले-हौले चलो मेरे बालमा (सावन की घटा) बेहद लोकप्रिय हैं .शमसुल हुदा की तरह बीते दौर के ही पंडित नरेन्द्र शर्मा भी विमर्श से दूर हैं,गीतों से हिन्दी कविताई को प्रतिष्ठित करने वाले नरेन्द्र जी का गीत ‘यशोमती मैय्या से पूछे नंदलाला’ (सत्यम,शिवम,सुंदरम) भक्ति गीतों में आज भी लोकप्रिय है, पर गीत के पीछे खडे रचनाकार को भूला सा दिया गया .


इसी तरह मशहूर शायर शहरयार के गीतकार पक्ष को कम लोग जानते हैं, मुज़फ़्फ़र अली की ‘उमरावजान’ के लिए गीत लिख कर शहरयार ने ‘गीत’ लिखना बंद कर दिया . कहा जाता है कि उन्होने ‘अर्जुमंद’ के लिए भी गीत लिखे, अफ़सोस फ़िल्म ‘रिलीज़’ न हो सकी . शहरयार के समान शेवान रिज़वी और बशर नवाज़ ने सीमित गाने लिखे, पर इनका फ़न काबिले तारीफ़ था. गीतकार बशर नवाज़ का ‘करोगे याद तो हर बात याद आएगी’ (बाज़ार) और शेवान रिज़वी का ‘दिल की आवाज़
भी सुन’ (हमशाया) जैसे गाने याद आते हैं . जान निसार अख्तर, कवि प्रदीप, रमेश शास्त्री,पुरुषोत्तम पंकज,सरस्वती कु दीपक,केदार शर्मा, वर्मा मलिक, अभिलाष,गौहर कानपुरी,रवि और खुमार बाराबंकवी जैसे गीतकारों के बारे में संगीत-प्रेमी ‘अनजान’ से हैं . इन कलम के जादूगरों ने हांलाकि कुछ ही
गीत लिखे पर सुनने लायक लिखें :--- अए दिल-ए-नादान (जान निसार अख्तर ), हवा मे उडता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का (रमेश शास्त्री), चांद जैसे मुखडे पर बिंदिया सितारा (पुरूषोत्तम पंकज), तुम्हे गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो (गौहर कानपुरी), जय बोलो बेईमान की (वर्मा मलिक), किस्मत के खेल निराले (रवि), मत भूल मुसाफ़िर तुझे जाना होगा ( केदार शर्मा), माटी कहे
कुम्हार से (सरस्वती कु दीपक), इतनी शक्ति हमें देना दाता’ (अभिलाष),चल अकेला (कवि प्रदीप), साज़ हो तुम (खुमार बाराबंकवी) और बहुत से ऐसे अच्छे फ़नकार जो संगीत की महफ़िल से दूर गुमनामी का जीवन जी रहे हैं .







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