Tuesday, January 17, 2012

सईद मिर्ज़ा की 'नसीम'




सईद मिर्ज़ा की नसीम ‘बाबरी मस्जिद विधवंश’ के पूर्व देश के सामाजिक माहौल एवं घटना बाद की स्थिति पर एक मार्मिक टिप्पणी है। । फ़िल्म में एक मुस्लिम परिवार की मुश्किलों को व्यक्त किया गया है ,मुख्य कथा 15 वर्षीय बालिका ‘नसीम’ (मयूरी कांगो), और उसके प्रिय दादाजी (कैफ़ी आज़मी) को फ़ोकस करती है। दादाजी के भूमिका में शायर कैफ़ी आज़मी ने शानदार अभिनय कला दिखाई है, गौरतलब कि ‘नसीम’ का किरदार कैफ़ी साहब का एकमात्र ‘स्क्रीन’ अवतार है। संवेदनशील विषय पर आधारित होते हुए भी फ़िल्म में कहीं ‘हिंसा’ को प्रोजक्ट नही किया गया, अपितु ‘नसीम’ के माध्यम से एक मुस्लिम युवती एवं उसके परिवार के अहिंसक असंतोष व क्रोध को प्रकट किया गया है ।

फ़िल्म अधिकांशत: फ़्लैशबैक के साथ परिवार की पुरानी यादों को प्रस्तुत करती है, दादाजी अकसर पत्नी को याद करते हुए आगरा का जिक्र करते हैं । पहले परिवार को भूल कर दूसरा निकाह या शादी करने की रश्म देखी गयी है,वह दादा से पूछती है कि उन्होंने ऐसा क्यूं नहीं किया? दादा कहते हैं ‘ मेरे साथ ऐसा नहीं था, क्यूंकि इस मामले में डर यह था कि मैं नही बल्कि तेरी दादी मुझे छोड चली जाएगी’ दादा के जवाब पर नसीम हंस पडती है । उनकी इस स्वीकारता व आत्मसमर्पण को अनुभव कर दर्शक भी उनकी शख्सियत के कायल से हो जाते हैं ।

पर मुश्किल दिन खुशी के दुश्मन से हैं,टेलीविज़न प्रसारण को देखकर नसीम के पिता झल्ला कर बोलते है ‘ जब हम यहां जीना चाहते हैं तो,हमको बाहर क्यूं भेजना चाहते हो ? इदुल फ़ितर में परिवार बुजुर्ग दादा जी के पास जाता है, वह फ़ैज़ की पंक्तियों को याद कर सुना रहे हैं, इस बीच कुछ लाइनें भूलने लगे तो नसीम का साथी ज़फ़र( के के मेनन) उसे क्रोधित स्वर में पूरा करता है । जफ़र कहता है कि फ़ैज़ की पंक्तियों के मायने आज बदल गए हैं, हिंसा के माहौल में लोग एक दूसरे को काट रहे हैं । ज़फ़र का व्यक्तित्व तत्कालीन मुस्लिम समाज का प्रतिनिधि सा है,वह पीडित मुस्लिम युवा की आवाज़ है । पर इस महौल में हर कोई ज़फ़र जैसा नहीं, दादा उस समय व्यवस्था पर विश्वास व्यक्त करते हैं ।अब जब बाहर की आबो-हवा घर में पूरी चली आती है तो, नसीम के पिता दादा से पूछ्ते हैं कि ‘क्यूं विभाजन के बाद यहां रहने का निर्णय लिया’ कैफ़ी साहेब हल्की आवाज़ में कहते हैं‘तुम्हें आगरा के घर लगाया हुआ वह पेड याद है! उसे मैंने और तुम्हारी मां ने बडी शिद्दत से बडा किया है ।पिता की बातों को सुनकर वह क्रोध में बाहर चले जाता है, फ़िर नसीम मासूमियत से पूछती है ‘क्या सचमुच केवल पेड ही वजह है ?

वह इसे स्वीकार करते हैं! हम देखते हैं कि कुछ दिनों बाद दादा जी का इंतकाल हो जाता है, संयोग से वह बाबरी मस्जिद घटना के दिन अल्लाह को प्यारे हो जाते हैं, मुश्किल भरी आबो-हवा में क्षति हुई |
सरफ़िरा ज़फ़र उनके जनाज़े को देख ठंडी आवाज़ में बडबडाता है ‘ यह दिन आपके रुकसत होने के लिए माकूल है’।



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