Saturday, January 14, 2012
जो भी बिछडे हैं, कब मिले हैं फ़राज़
आधुनिक उर्दू शायरी की लोकप्रिय शख्सियत ‘अहमद फ़राज़’ किसी तारूफ़ के मोहताज़ नही, शायरी को अभिवयक्ति का सरमाया मानने वाले फ़राज़ में कारगर कलामों की अदभुत क्षमता थी । सामाजिक,राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संदर्भों को उन्होंने शायरी व गज़ल विधा के कलात्मक हथियारों से व्यक्त किया। फ़राज़ साहेब की गज़लों में असफ़ल प्रेम एवं मिलन के स्वर कमाल की अंदाज़-ए-बयान को प्रस्तुत करते हैं । उर्दू गज़ल सौंदर्य के दीवाने उन्हें विषय चयन एवं विवधता के लिए याद करते हैं, गज़ल गायकी के सितारे फ़राज़ के कलामों के बगैर अधुरे से मालूम होते हैं । मेंहदी हसन,तलत अज़ीज़,रूणा लैला जैसे फ़नकार फ़राज़ को बहुत याद करते हैं ।
फ़राज़ की युवावस्था फ़ैज़ एवं हबीब जलीब जैसे उर्दू के महान व नुमाया शख्शियतों के साए में जवां हुई, इसलिए यह कहा भी जाता है कि फ़राज़ का तसव्वुर फ़ैज़ व जलीब साहेब की विरासत से संवाद है । पाकिस्तान के ‘प्रगतिशील आंदोलन’ में इन विभूतियों का स्मरणीय योगदान रहा है, अब वह फ़ैज़ साहेब हो या अहमद फ़राज़ या फ़िर हबीब जलीब सभी ने तत्कालीन तानाशाही की खुलकर निंदा की।
निसार मैं तेरी गलियों पे अए वतन
के जहां चली है रश्म,कि कोई न सर उठा के चले ।
अब तो शायर पे भी कर्ज़ मिट्टी का है
अब कलम में लहू है, सियाही नहीं ।
यही कहा था मेरी आंख देख सकती है
तो मुझ पे टूट पडा सारा शहर नाबीना ।
दीप जिसका महल में ही जले
चंद लोगों की खुशियां लेकर चले ।
अहमद फ़राज़ के चले जाने से, पाकिस्तान प्रगतिशील आंदोलन को ठीक वैसी ही क्षति हुई जैसे कैफ़ी आज़मी के यूं रुकसत हो जाने से भारत के प्रगतिशील आंदोलन को हुई । माना जाता है कि फ़राज़ के साथ प्रगतिशील शायरी का फ़न ना के बराबर रहा, नई पीढी की उर्दू शायरी में ‘प्रगतिशीलता’ का सौंदर्य तो ज़रूर था मगर अब कैफ़ी आज़मी और फ़राज़ जैसा शायद कोई न था । फ़राज़ के चले जाने से आधुनिक उर्दू आंदोलन की वह कलम खामोश हो गई, जिसे नए पाकिस्तान का भविष्य लिखना था ।
कैफ़ी आज़मी(हिन्दुस्तान) और अहमद फ़राज़(पाकिस्तान) दोनों में ‘प्रगतिशील उर्दू शायरी आंदोलन’ की सामानता थी । फ़राज़ की शायरी किसी भी जमीनी और भौगोलिक सरहद की कब्ज़े में नहीं रही, हिन्द व पाक में वह समान रुप से लोकप्रिय हैं । कला किसी भी सरहद में कैद नहीं की जा सकती, यही वजह है कि फ़राज़ हिन्दुस्तान में पढे जाते हैं तो कैफ़ी पाकिस्तान में । फ़राज़ के कलाम में ‘सामाजिक न्याय’ का प्रगतिशील स्वर बडी ही शिद्दत से व्यक्त हुआ ,प्रगतिशील उर्दू आंदोलन की वह संभवत: अंतिम कडी थे । अहमद फ़राज़ के चले जाने से, पाकिस्तान प्रगतिशील उर्दु आंदोलन को ठीक वैसी ही क्षति हुई जैसे कैफ़ी आज़मी के यूं रुकसत हो जाने से भारत के प्रगतिशील आंदोलन को हुई थी।
‘प्रगतिशील उर्दू शायरी’ की संकल्पना जोश मलीहाबादी तथा मोहम्मद इकबाल से आरंभ होकर अली सरदार जाफ़री, साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी के प्रयासों से विकसित हुई । फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ व कैफ़ी आज़मी की संवेदना ने विरासत को आगे बढाया, फ़िर हबीब जलीब, फ़हमीदा रियाज़,किश्वर नाहिद और अहमद फ़राज़ ने ‘प्रगितिशील’ उर्दू आंदोलन के माध्यम से उर्दू समाज को ‘परिवर्तन’ के लिए आंदोलित किया । प्रगतिशील अवधारणा से बीसवीं शदी के उर्दू साहित्य को बडा संबल मिला । आंदोलन को ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ से स्फ़ूर्ति मिली, कला विधाओं के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों को खत्म करने का संकल्प लिया।
रुमानी शायर के रूप में फ़राज़ साहेब ने ‘कलाम’ को फ़ारसी व उर्दू विरासत से तराशा । फ़राज़ की रूमानी शायरी में मीर की संवेदना और मिर्जा गालिब का दर्शन सुंदरता से समाहित है । यह कम लोग जानते हैं कि फ़राज़ फ़ारसी के महान शायर ‘बेदिल’ से बेहद प्रभावित रहे, वह कहते हैं ‘शायरी की कल्पना मुझे बेदिल और गालिब से मिली’।
एक ओर जहां फ़राज़ प्रगतिशील शायरी पुरोधा रूप में विख्यात हैं, वहीं सरहद पार भारत में ‘रंजीश ही सही’ से एक लोकप्रिय नाम बने हुए हैं । चार दशक बाद भी यह पंक्तियां ना जाने क्यूं अनजान नहीं मालूम होती हैं ।
रंजिश ही सही दिल दुखाने के लिए आ
अब फ़िर से मुझे छोड के जाने के लिए आ ।
--क़लाम---
1) फ़िर उसी रहगुज़र पे शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद
जान पहचान से क्या होगा
फ़िर भी अए दोस्त गौर कर शायद
मुंतज़ीर जिनके हम रहे उनको
मिल जाए और हमसफ़र शायद
जो भी बिछडे हैं कब मिले हैं फ़राज़
फ़िर भी तु इंतज़ार कर शायद !
2) कठिन है रहगुज़र, थोडी दूर साथ चलो
बहुत कडा है सफ़र थोडी दूर साथ चलो
तमाम उम्र कहां कोई साथ देता है
यह जानता हूं, मगर थोडी दूर साथ चलो
यह एक शब की मुलाक़ात भी गनीमत है
किसे है कल की खबर, थोडी दूर साथ चलो
अभी तो जाग रहें हैं चिराग राहों के
अभी है दूर सेहर थोडी दूर चलो ।
3) सिवाए तेरे कोई भी दिन रात ना जाने मेरे
तु कहां है मगर अए दोस्त पुराने मेरे
शमा की लौ थी कि वह तु था शब-ए-हिज़्र
देर तक रोता रहा कोई सिरहाने मेरे
आज एक बरस और बीत गया उसके बगैर
जिसके होते हुए होता था ज़माने मेरे
काश तु भी मेरी आवाज़ सुनता हो
फ़िर पुकारा है तुझे दिल की सदा ने मेरे
काश तु भी आ जाए ‘मसीहाई’ को
लोग आते हैं बहुत दिल को दुखाने मेरे ।
4) हुई है शाम तो आंखो में बस गया फ़िर तु
कहां गया है मेरे सेहर के मुसाफ़िर तु
बिछडना है तो हंसी खुशी से बिछड जा
यह क्या सोंचता है हर मुक़ाम पे आखिर तु
फ़राज़ तुने उस मुश्किलों में डाल दिया
ज़माना साहिब और सिर्फ़ शायर तु ।
5) रंजिश ही सही दिल दुखाने के लिए आ
आ फ़िर से मुझे छोड के जाने के लिए आ
जैसे तुझे आते हैं ना आने के बहाने
वैसे ही किसी रोज़ ना जाने के लिए आ
इक उम्र से हूं लज़्ज़त-ए-गम से भी महरूम
अए राहत-ए-जान मुझको रूलाने के लिए आ
अब तक दिल-ए-खुशफ़हम को तुझसे हैं उम्मीदें
यह आखिरी शम्मे भी बुझाने के लिए आ
6) ख्वाव मरते नहीं
ख्वाब दिल हैं, ना आंखे, ना सांसे
के जो रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जाएंगे
जिस्म की मौत से यह भी मर जाएंगे
ख्वाब मरते नहीं !
ख्वाब तो रोशनी हैं , नवा हैं, हवा हैं
जो काले पहाडों से रूकते नहीं !
जुल्म की दोजखों से भी…
फ़ुकते नहीं रोशनी और हवा के आलम
ख्वाब तो हर्फ़ हैं, ख्वाब नूर हैं
ख्वाब सुकरात हैं, ख्वाब मंसूर है ।
15-01-2012
Labels:
Ahmad Faraz,
Mehdi Hassan
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