Saturday, January 7, 2012
बेहतरीन संगीत निराश नही करता !
हिन्दी फ़िल्मों में गीतकारों की सेवाएं लेने का प्रचलन पहली सवाक फ़िल्म‘आलम-आरा’ से अस्तित्त्व में आया, और आज यह ‘परम्परा’ सी बन गयी है .आर्देशिर ईरानी ने अपने साहसिक उद्यम से भारतीय सिनेमा में ‘संगीतकारों’एवं गीतकारों को अवसर दिए . गीत-संगीत की यह परम्परा उस समय
से आज तक बरकरार है एवं हर सार्थक गीत और अल्बम से मज़बूत हो रही है .फ़िल्म पटकथा में परिस्थितियों के प्रति पात्रों की ‘कविताई अभिव्यक्ति’को गीतों के माध्यम से विस्तार मिला . ‘सिनेमा’ मेंगीत-संगीत ‘गीतकार’ जैसे रचनाधर्मी व्यक्तित्व की सेवाओं का सुपरिणाम है .उर्दू से आए फ़नकारों का फ़िल्म लेखन की ओर रुझान रहा , एक समय में यह चलन सा हो गया कि उर्दू से संबंध रखने वाले ही इस क्षेत्र में कामयाब होते थे . इस भाषा ने फ़िल्मों को अनेक उल्लेखनीय गीतकार दिए,
हिन्दी के गीतकार भी बेहद सफ़ल रहे--- कवि प्रदीप, भरत व्यास, नीरज ,योगेश, पंडित नरेन्द्र शर्मा के उदाहरण इसकी
ज़िन्दा मिसाल हैं .
गीतकार का सृजन –धर्म : - कहानी,पात्र,परिस्थिति का निरीक्षण व सूक्ष्म निरीक्षण से प्रेरित होकर अभिव्यक्त होता है . कोई गीतकार किसी बात को कितनी ‘दक्षता’ से व्यक्त करेगा, यह पूर्णतया: उसकी व्यक्तिगत क्षमता पर निर्भर करता है . सुंदर अभिव्यक्तियों से पूर्ण गीत किसी मामूली से फ़िल्म को यादगार बना देता है . हिन्दी ‘मुख्यधारा’सिनेमा में दर्जनो ऐसे उदाहरण हैं जहां गीत-संगीत तो ‘सुपरहिट’ रहा किन्तु फ़िल्मों ने निराश किया, यहउदाहरण संगीत को प्रतिष्ठा प्रदान कर यह स्थापित करते हैं कि बेहतरीन संगीत कभी निराश नही करता . कोई नया गीत सुनकर श्रोता फ़िल्म के बारे में जानने को उन्मुख होते हैं, फ़िल्म प्रचारक भी इस बात को जानते हैं कि गीत श्रोताओं -दर्शकों को आकर्षित करते हैं . फ़िल्म प्रमोशन में गीतों को महत्त्व मिलने का एक कारण यह भी रहा, रेडियो- टीवी में गीतों के साथ फ़िल्म की मार्केटिंग की जाती है .
आधुनिक युग में बाज़ार के नाम पर फ़िल्म वालों ने प्रमोशन में गीत की ‘प्रस्तुति’ को ‘गुणवत्ता’ से अधिक महत्त्व दे दिया, प्रस्तुति केंद्रित गीतों में फ़ूहडता आम हो जाना ठीक न हुआ . ऐसे हालात में फ़िल्म-वालों को कल्याण की राह गुणवत्ता की शरण में मिली, गीतकारों ने कलम के जादू से संगीत का बेडा पार किया। फ़िल्म –संगीत में लोगों की रुचि फ़िर से जगाई --गुलज़ार, जावेद अख्तर जैसे लेखकों ने बाज़ार युग को चुनौती देकर श्रेष्ठ गीतों की रचना की, अपनी दूसरी पारियां शुरु कर वह आज भी मोर्चे पर कायम हैं . वह गुज़रा स्वर्णिम दौर जैसे फ़िर से महत्त्वपूर्ण हो गया . एक ऐसा समय जब शैलेन्द्र, शाहिर, मजरुह, हसरत, शकील बदायूंनी ,रज़ा मेंहदी अली खान,राजेन्द्र कृष्ण, कैफ़ी आज़मी, नीरज, भरत व्यास, आनंद बक्शी,गुलज़ार, योगेश के गीतों ने जन्म लिया .गुज़रे जमाने से सीख लेकर आज के गीतों को भी अपने ‘समय’ का सार्थक रूप प्रस्तुत करना होगा ।
आज पुराने गीतों का जादू कल ही की तरह बरकरार है, आज भी हमें ऐसे श्रोता मिल जाएंगे जिन्हे नए गाने से ज़्यादा वही गीत पसंद है .आजकल के गाने ज़बान पर चढ ज़रूर जाते हैं , लेकिन दिल पर गुज़रा ज़माना ही राज करता है . क्या ऐसे गाने नही बन रहे जो दिल तक पहुंचे ? अगर ऐसा है तो फ़िल्म संगीत को ‘पुनरुत्थान’ की बेहद ज़रुरत है !
तकनीकी सुविधाओं के स्तर पर बात करें तो सन 80 के आस-पास बहुत से लोगो के पास टेप या कैसेट रिकार्डर जैसे आधुनिक उपकरण नही थे, तब रेडियो पर ही फ़िल्म संगीत का आनंद लिया जाता था . रेडियो के पहले स्थिति इस जैसी भी नही थी, सन 50-60 के आस पास रेडियो होना भी एक बडी बात समझी जाती थी। यदि हम इस लम्बे अंतराल का जायज़ा लें , तो पाएंगे कि हिन्दी संगीत का ‘स्वर्णिम’ युग रेडियो पर लोकप्रिय हुआ. जिस संगीत को लोगो ने रेडियो पर सुनकर याद कर लिया हो वह कितना प्रभावी रहा होगा यह स्पष्ट है . यह गीत आज भी उतने ही लोकप्रिय और बीते समय की पहचान हैं .फ़िल्म निर्माता को समय की नब्ज़ पहचान कर संगीत के प्रति ‘कामचलाऊ’ नज़रिया को हटा कर बेहतर संगीत को लाना होगा . गीतकार के व्यक्तित्व को ‘रचना’ की आज़ादी देकर गीतो में फ़िर से जान डाली जा सकती है . जब उसके नज़रिए को ‘स्पेस’ मिलेगा तो गाने दिल तक ज़रूर पहुंचेंगे, यादगार गीतों का स्वर्णिम दौर फ़िर से रचा जाएगा . गुलज़ार ,जावेद अख्तर, प्रसून जोशी,अमिताभ
भट्टाचार्य,स्वानंद किरकिरे , निरंजन आएंगर जैसे गीतकारों ने उत्थान की दिशा में सकारात्मक कार्य कर कुछ बेहतरीन गीतों की रचना की .
संगीत में गुज़रे ज़माने के फ़नकारों ने कुछ ऐसा कमाल किया कि वह सदा के लिए अमर बन गए . संगीत के सफ़र में अनेक शख्शियतें आईं, पर हर किसी को याद नही किया जाता .कुछ फ़नकार ऐसे आए जिन्हे सिरे से भूला दिया गया, इन लोगों ने काम तो अच्छा किया पर श्रोता इन्हे नाम से नही पहचानते . इन फ़नकारों में ऐसे बहुत से ‘गीतकारों’ का नाम लिया जा सकता है जिनके गाने आज भी सुने जाते हैं , पर ‘स्वयं इन्हें भूला सा दिया गया और विमर्श का विषय नही बन सके .यह शख्शियतें विमर्श का विषय नही हैं .
गीतकार कमर जलालाबादी ने अपने सिने कैरियर में सुंदर गीतों की रचना की--‘दोनो ने किया था प्यार मगर’(महुआ) ‘हावडा ब्रिज’ का ‘आईए मेहरबान’(हावडा ब्रिज), मैं तो एक ख्वाब हूं (हिमालय की गोद मे) जैसे हिट गीत लिखे. भाषा से फ़िल्म में आए भरत व्यास के गीतों में हिन्दी कविताई का प्रयोग देखा गया ‘यह कौन चित्रकार है’( बूंद जो मोती बन गई), ‘ज्योत से ज्योत जगाते चलो’(संत ज्ञानेश्वर), ‘आ लौट के आजा मेरे मीत’(रानी रुपमती) जैसे लोकप्रिय गीतो के रचनाकार भरत व्यास पर कम लिखा गया है .शायर-गीतकार हसन कमाल को ‘निकाह’ के गीतों के लिए याद किया जाता है , पर उनके ‘ऐतबार’ और ‘आज की आवाज़’ के लिखे गीत भी कमतर नही हैं .हसन
कमाल को फ़िल्म ‘आज की आवाज़’ के लिए फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड भी मिला . इसी तरह
गुज़रे ज़माने के एस एच बिहारी (शमसुल हुदा बिहारी) का नाम विमर्श से दूर है, संगीतकार ओ पी नैयर- एस एच बिहारी-आशा भोसले की टीम ने यादगार गीत दिए. शमसुल हुदा के गीत:—कजरा मोहब्बत वाला (किस्मत), ज़रा हौले-हौले चलो मेरे बालमा (सावन की घटा) बेहद लोकप्रिय हैं .शमसुल हुदा की तरह बीते दौर के ही पंडित नरेन्द्र शर्मा भी विमर्श से दूर हैं,गीतों से हिन्दी कविताई को प्रतिष्ठित करने वाले नरेन्द्र जी का गीत ‘यशोमती मैय्या से पूछे नंदलाला’ (सत्यम,शिवम,सुंदरम) भक्ति गीतों में आज भी लोकप्रिय है, पर गीत के पीछे खडे रचनाकार को भूला सा दिया गया .
इसी तरह मशहूर शायर शहरयार के गीतकार पक्ष को कम लोग जानते हैं, मुज़फ़्फ़र अली की ‘उमरावजान’ के लिए गीत लिख कर शहरयार ने ‘गीत’ लिखना बंद कर दिया . कहा जाता है कि उन्होने ‘अर्जुमंद’ के लिए भी गीत लिखे, अफ़सोस फ़िल्म ‘रिलीज़’ न हो सकी . शहरयार के समान शेवान रिज़वी और बशर नवाज़ ने सीमित गाने लिखे, पर इनका फ़न काबिले तारीफ़ था. गीतकार बशर नवाज़ का ‘करोगे याद तो हर बात याद आएगी’ (बाज़ार) और शेवान रिज़वी का ‘दिल की आवाज़
भी सुन’ (हमशाया) जैसे गाने याद आते हैं . जान निसार अख्तर, कवि प्रदीप, रमेश शास्त्री,पुरुषोत्तम पंकज,सरस्वती कु दीपक,केदार शर्मा, वर्मा मलिक, अभिलाष,गौहर कानपुरी,रवि और खुमार बाराबंकवी जैसे गीतकारों के बारे में संगीत-प्रेमी ‘अनजान’ से हैं . इन कलम के जादूगरों ने हांलाकि कुछ ही
गीत लिखे पर सुनने लायक लिखें :--- अए दिल-ए-नादान (जान निसार अख्तर ), हवा मे उडता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का (रमेश शास्त्री), चांद जैसे मुखडे पर बिंदिया सितारा (पुरूषोत्तम पंकज), तुम्हे गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो (गौहर कानपुरी), जय बोलो बेईमान की (वर्मा मलिक), किस्मत के खेल निराले (रवि), मत भूल मुसाफ़िर तुझे जाना होगा ( केदार शर्मा), माटी कहे
कुम्हार से (सरस्वती कु दीपक), इतनी शक्ति हमें देना दाता’ (अभिलाष),चल अकेला (कवि प्रदीप), साज़ हो तुम (खुमार बाराबंकवी) और बहुत से ऐसे अच्छे फ़नकार जो संगीत की महफ़िल से दूर गुमनामी का जीवन जी रहे हैं .
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